Saturday, November 21, 2020

Find the missing digits of multiples of 27

This problem is inspired by a video A delightful logic puzzle from the Stanford Competitive Exam (1947). Here is the illustration of the algorithm devised by me to solve the problems of similar nature. 


Problem: Suppose there is a number 1A6B3 which is completely divisible by 27, where A and B are digits. Find all possible pairs (A, B).

Answer: (2, 6), 5, 3), (8, 0) and (9, 8)

Solution: 
If we take A = 0 and B = 0, then the number = 10603

Suppose X%Y represents the remainder when X is divided by Y.

Hence, 10603%27 =  19

Also Since, 1000%27 = 1 
Hence, If we will increase the number by 1000 then the remainder will increase by 1.

If we increase 10603 by 1000, then new number = 11603. Please note here we are taking A = 1

Hence, 
When A = 0, 10603%27 = 19
When A = 1, 11603%27 = 19 + 1 = 20
When A = 2, 12603%27 = 20 + 1 = 21*
When A = 3, 13603%27 = 21 + 1 = 22
When A = 4, 14603%27 = 22 + 1 = 23
When A = 5, 15603%27 = 23 + 1 = 24*
When A = 6, 16603%27 = 24 + 1 = 25
When A = 7, 17603%27 = 25 + 1 = 26
When A = 8, 18603%27 = (26 + 1)%27 = 27%27 = 0*
When A = 9, 19603%27 = 0 + 1 = 1*

In case of A = 8, since remainder is 0, hence (A, B) = (8, 0) is the surest answer!

All possible two digit multiples of 27: 27, 54 and 81. Unit digits of these multiples are 1, 4 and 7.

The unit digits of remainders 21(when A = 2), 24(when A = 5) and 1(when A = 9) matches with that of multiples of 27(81, 54 and again 81).

Now let us explore these three cases one by one.

When A = 2, 81 - 21 = 60, hence B = 6(Tenth digit of 60). Hence, (A, B) = (2, 6)

When A = 5, 54 - 24 = 30, hence B = 3(Tenth digit of 30). Hence, (A, B) = (5, 3)

When A = 9, 81 - 1= 80, hence B = 8(Tenth digit of 80). Hence, (A, B) = (9, 8)


~ Jayram

Sunday, October 18, 2020

भावशरीर

 मैं साधक हूँ‒यह साधकका स्थूलशरीर नहीं है, प्रत्युत भावशरीर है। अगर साधकमें पहले ही यह भाव हो जाय कि ‘मैं संसारी नहीं हूँ, मैं तो साधक हूँ’ तो उसका साधन बड़ा तेज चलेगा। जो बात अहंतामें आ जाती है, उसको करना बड़ा सुगम हो जाता है। 

‘मैं सेवक हूँ’‒इस अहंतासे यह बात पैदा होगी कि मेरा काम सेवा करना है, कुछ चाहना मेरा काम नहीं है।

Friday, May 1, 2020

भगवद्गीता ४

अर्जुन बोले- हे कृष्ण! मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है?

श्रीभगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न यह काम और क्रोध ही वैरी है। यह भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है।  मन, बुद्धि और इंद्रियों में स्थित यह काम ही ज्ञान को ढकके देहि को मोहित करता है। बुद्धि से श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो! तू इस काम-रूप दुर्जय शत्रु को मार डाल।

Thursday, April 30, 2020

भगवद्गीता ३

अर्जुन बोले- हे जनार्दन! यदि आप कर्म की अपेक्षा बुद्धि को श्रेष्ठ मानते है तो फिर मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?

श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन, मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किए बिना और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से बुद्धियोग को प्राप्त होता है। सारा मनुष्य समुदाय प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है। जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इंद्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से विषयों का चिंतन करता रहता है, वह मिथ्याचारी कहा जाता है। 

यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों के अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य-समुदाय कर्मों से बँधता है। यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है और सर्वव्यापी आत्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है। 

परंतु जो पुरुष आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त और आत्मा में ही संतुष्ट है, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है। उस महापुरुष का सम्पूर्ण प्राणियों में किंचितमात्र भी स्वार्थ का सम्बंध नहीं रहता। 

श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। हे अर्जुन! मेरे लिए कुछ भी कर्तव्य नहीं है, फिर भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ। क्योंकि यदि मैं कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाय, क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।

आत्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए की वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न न करें, किंतु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवावे।

Monday, April 27, 2020

भगवद्गीता २

अर्जुन बोले- हे केशव! स्थिरबुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है।

श्रीभगवान बोले- स्थितप्रज्ञ पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर आत्मा में ही संतुष्ट रहता है। दुःखों की प्राप्ति होने पर स्थिरबुद्धि मुनि के मन में उद्वेग नहीं होता। जिसके भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है। जो अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर द्वेष नहीं करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है। स्थितप्रज्ञ पुरुष की विषयासक्ति भी आत्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है। जिस पुरुष की इंद्रियाँ वश में होती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है। विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष के बुद्धि का नाश हो जाता है। राग-द्वेष से रहित इंद्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ भी स्थिरबुद्धि मुनि अंतःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है। प्रसन्नचित्त मुनि की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भली-भाँति स्थिर हो जाती है। 

विषयासक्त मनुष्य में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होता और उस अयुक्त पुरुष के अंतःकरण में भावना भी नहीं होता तथा भावनाहिन मनुष्य को शांति और सुख नहीं मिलता। क्योंकि विषयों में विचरती हुई इंद्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है वह एक ही इन्द्रिय अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है। जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, स्थिरबुद्धि मुनि के लिए वह रात्रि के समान है। सब भोग, स्थितप्रज्ञ पुरुष में, किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं। 

ब्रह्म को प्राप्त स्थिरबुद्धि पुरुष कभी मोहित नहीं होता और अंतकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानंद को प्राप्त हो जाता है।

Friday, April 24, 2020

भगवद्गीता १

अर्जुन बोले- हे कृष्ण, युद्ध के अभिलाषी इस स्वजन-समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे है और मुख सूखा जा रहा है और मेरे शरीर में कम्प और रोमांच हो रहा है। त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है; इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ। हे केशव, मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ और युद्ध में स्वजन समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता। हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट है, वे सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं। हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता। अपने ही कूटुंब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे! 

लोभ से भ्रष्टचित्त हुए लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते। सनातन कुल-धर्म के नाश से कुल में पाप बहुत फैल जाता है। वर्णसंकर के कारण श्राद्ध और तर्पण से वंचित पितरलोग अधोगति को प्राप्त होते हैं। 

इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ; क्योंकि गुरूजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा। जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय हमारे मुक़ाबले में खड़े हैं। भूमि में निष्कंटक, धन-धान्य सम्पन्न राज्य को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इंद्रियों को सूखाने वाले शोक को दूर कर सके।

श्रीभगवान बोले- जिनके प्राण चले गये है उनके लिए और और जिनके प्राण नहीं गये है उनके लिए भी पण्डितजण शोक नहीं करते। हे कुन्तीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देनेवाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य है, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर। क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है। नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप आत्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गये हैं। इसलिए हे अर्जुन, तू युद्ध कर। आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है। क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है; शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता। यह आत्मा सर्वव्यापी और स्थिर रहने वाला है। यह आत्मा अव्यक्त, अचिंत्य और विकाररहित है। 

जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। हे अर्जुन, सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले है, केवल बीच में ही प्रकट हैं; फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है!

यह आत्मा सबके शरीरों में सदा ही अवध्य है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों ले लिए तू शोक करने के योग्य नहीं है। 

जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा; इस प्रकार युद्ध करके तू पाप को प्राप्त नहीं होगा। 

वेद समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं; तू उन भोगों और उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोक आदि द्वंदो से रहित, आत्मा में स्थित और स्वाधीन अंतःकरण वाला हो।

हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर कर्तव्यकर्मों को कर। तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ; क्योंकि फल में हेतु बनने वाले अत्यंत दीन है। समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है और जन्मरूप बंधन से मुक्त हो निर्विकार परमपद को प्राप्त हो जाता है। 

अर्जुन बोले- हे केशव! स्थिरबुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है।

श्रीभगवान बोले- स्थितप्रज्ञ पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर आत्मा में ही संतुष्ट रहता है।

भगवान

भगवान केवल एक ही है। सब भगवान का रूप है। भगवान न तो अच्छा हैं, न ही बुरा। भगवान सभी के लिए सम हैं। भगवान न ही किसी के मित्र है न ही शत्रु। किंतु जो प्रभु से सच्चा प्रेम करते हैं, प्रभु भी उनको मार्गदर्शन कराते रहते है ताकि वो किसी मुश्किल में न फ़सें। प्रभु के साक्षात्कार के लिए कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है। प्रभु सबके हृदय में विराजमान है। ख़ुद पर विश्वास होना चाहिए। किसी भी काम को जल्दीबाज़ी में न करें। भक्त के भावों की रक्षा के लिए भगवान का अवतरण होता है। एक-दूसरे पर विश्वास रूपी डोर ने ही सारे समाज को बुना हुआ है। जब हम किसी को धोखा देते है या किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाते है, तो हम समाज से अलग हो जाते है। और फिर व्यक्ति कुंठित महसूस करने लगता है। दूसरों को कष्ट केवल वही व्यक्ति पहुँचाता है जो स्वयं कष्ट में है।

भगवान सर्वत्र है। भगवान का विस्मरण असम्भव है। भगवान को छल और कपट पसंद नहीं है। अगर मैंने किसी को धोखा दिया, तो मैं ख़ुद अपने आप को माफ़ नही कर पाउँगा। यही व्यक्ति का स्वभाव है। व्यक्ति का प्रकृति ईश्वर की रचना है।

ईश्वर को हम जिस स्वरूप में सच्चे हृदय से चाहते है, वे उसी रूप में सुलभ है। एक बार में सिर्फ़ एक पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहिए।