जीवन का सम्मान करना चाहिए। सारा जगत अपना ही रूप है। सारा जगत अपना है। जब हम अपने के लिए कुछ करते है तो परिश्रम का बोध नहीं होता है। हमें ये नहीं लगता है की मैंने कोई उपकार किया है। बल्कि ये लगता है की हमने अपनी ज़िम्मेवरियों का निर्वाह किया है। जब हम अपनों के लिए कुछ करते है तो हमें वास्तविक सुख मिलता है, ख़ुद के हृदय को तसल्ली मिलती है, शांति मिलती है। लेकिन इस सुख से बन्धना नहीं चाहिए। सुख से बंधने का तात्पर्य है क्रिया की पुनरावृति अर्थात चबे हुए को चबाना। फिर तो रस नहीं मिलेगा। जीवन रस-पूर्ण होना चाहिए। किंतु रस की अभिलाषा से बँधना नहीं चाहिए। स्वाभाविक क्रिया करना चाहिए। जब हम किसी भी तरह के सुख या अभिलाषा से बँधे होते है तो हम अपने या दूसरों के साथ ज़बरदस्ती करते हैं, ख़ुद को या दूसरों को निचोड़ने की कोशिश करते है, यही हिंसा है, अपने के और दूसरों के प्रति। स्वाभाविक क्रिया में ही रस है। सारा जगत अपना है और उनकी स्वाभाविक सेवा करना ही हमारा कर्म है।
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