अर्जुन बोले- हे जनार्दन! यदि आप कर्म की अपेक्षा बुद्धि को श्रेष्ठ मानते है तो फिर मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?
श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन, मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किए बिना और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से बुद्धियोग को प्राप्त होता है। सारा मनुष्य समुदाय प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है। जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इंद्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से विषयों का चिंतन करता रहता है, वह मिथ्याचारी कहा जाता है।
यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों के अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य-समुदाय कर्मों से बँधता है। यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है और सर्वव्यापी आत्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है।
परंतु जो पुरुष आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त और आत्मा में ही संतुष्ट है, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है। उस महापुरुष का सम्पूर्ण प्राणियों में किंचितमात्र भी स्वार्थ का सम्बंध नहीं रहता।
श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। हे अर्जुन! मेरे लिए कुछ भी कर्तव्य नहीं है, फिर भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ। क्योंकि यदि मैं कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाय, क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।
आत्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए की वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न न करें, किंतु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवावे।
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