Friday, April 24, 2020

भगवद्गीता १

अर्जुन बोले- हे कृष्ण, युद्ध के अभिलाषी इस स्वजन-समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे है और मुख सूखा जा रहा है और मेरे शरीर में कम्प और रोमांच हो रहा है। त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है; इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ। हे केशव, मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ और युद्ध में स्वजन समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता। हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट है, वे सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं। हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता। अपने ही कूटुंब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे! 

लोभ से भ्रष्टचित्त हुए लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते। सनातन कुल-धर्म के नाश से कुल में पाप बहुत फैल जाता है। वर्णसंकर के कारण श्राद्ध और तर्पण से वंचित पितरलोग अधोगति को प्राप्त होते हैं। 

इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ; क्योंकि गुरूजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा। जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय हमारे मुक़ाबले में खड़े हैं। भूमि में निष्कंटक, धन-धान्य सम्पन्न राज्य को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इंद्रियों को सूखाने वाले शोक को दूर कर सके।

श्रीभगवान बोले- जिनके प्राण चले गये है उनके लिए और और जिनके प्राण नहीं गये है उनके लिए भी पण्डितजण शोक नहीं करते। हे कुन्तीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देनेवाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य है, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर। क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है। नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप आत्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गये हैं। इसलिए हे अर्जुन, तू युद्ध कर। आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है। क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है; शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता। यह आत्मा सर्वव्यापी और स्थिर रहने वाला है। यह आत्मा अव्यक्त, अचिंत्य और विकाररहित है। 

जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। हे अर्जुन, सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले है, केवल बीच में ही प्रकट हैं; फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है!

यह आत्मा सबके शरीरों में सदा ही अवध्य है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों ले लिए तू शोक करने के योग्य नहीं है। 

जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा; इस प्रकार युद्ध करके तू पाप को प्राप्त नहीं होगा। 

वेद समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं; तू उन भोगों और उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोक आदि द्वंदो से रहित, आत्मा में स्थित और स्वाधीन अंतःकरण वाला हो।

हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर कर्तव्यकर्मों को कर। तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ; क्योंकि फल में हेतु बनने वाले अत्यंत दीन है। समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है और जन्मरूप बंधन से मुक्त हो निर्विकार परमपद को प्राप्त हो जाता है। 

अर्जुन बोले- हे केशव! स्थिरबुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है।

श्रीभगवान बोले- स्थितप्रज्ञ पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर आत्मा में ही संतुष्ट रहता है।

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