अर्जुन बोले- हे केशव! स्थिरबुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है।
श्रीभगवान बोले- स्थितप्रज्ञ पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर आत्मा में ही संतुष्ट रहता है। दुःखों की प्राप्ति होने पर स्थिरबुद्धि मुनि के मन में उद्वेग नहीं होता। जिसके भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है। जो अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर द्वेष नहीं करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है। स्थितप्रज्ञ पुरुष की विषयासक्ति भी आत्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है। जिस पुरुष की इंद्रियाँ वश में होती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है। विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष के बुद्धि का नाश हो जाता है। राग-द्वेष से रहित इंद्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ भी स्थिरबुद्धि मुनि अंतःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है। प्रसन्नचित्त मुनि की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भली-भाँति स्थिर हो जाती है।
विषयासक्त मनुष्य में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होता और उस अयुक्त पुरुष के अंतःकरण में भावना भी नहीं होता तथा भावनाहिन मनुष्य को शांति और सुख नहीं मिलता। क्योंकि विषयों में विचरती हुई इंद्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है वह एक ही इन्द्रिय अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है। जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, स्थिरबुद्धि मुनि के लिए वह रात्रि के समान है। सब भोग, स्थितप्रज्ञ पुरुष में, किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं।
ब्रह्म को प्राप्त स्थिरबुद्धि पुरुष कभी मोहित नहीं होता और अंतकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानंद को प्राप्त हो जाता है।
No comments:
Post a Comment