तत्त्वबोध से पहले का द्वैत तो मोह में डालता है, पर बोध हो जाने पर भक्ति के लिये स्वीकृत द्वैत अद्वैत से भी अधिक सुन्दर होता है।
भगवान् अपनी इच्छासे प्रेमलीलाके लिये एकसे दो हो जाते हैं।
प्रेममें यह मिलना और अलग होना (मिलन और विरह) भगवान्की इच्छासे ही होता है, भक्तकी इच्छासे नहीं।
यह जगत् भगवान्का आदि अवतार है। एक परमात्मा ही अनेकरूप बन जाते हैं और फिर अनेकरूपका त्याग करके एकरूप हो जाते हैं।