मैं साधक हूँ‒यह साधकका स्थूलशरीर नहीं है, प्रत्युत भावशरीर है। अगर साधकमें पहले ही यह भाव हो जाय कि ‘मैं संसारी नहीं हूँ, मैं तो साधक हूँ’ तो उसका साधन बड़ा तेज चलेगा। जो बात अहंतामें आ जाती है, उसको करना बड़ा सुगम हो जाता है।
‘मैं सेवक हूँ’‒इस अहंतासे यह बात पैदा होगी कि मेरा काम सेवा करना है, कुछ चाहना मेरा काम नहीं है।